Lakhu Katha Kahani : Main Kursi hun. लघु कथा: "मैं कुर्सी हूँ"
लघु कथा: "मैं कुर्सी हूँ"
मैं कुर्सी हूँ। लकड़ी की बनी, एक कोने में चुपचाप खड़ी रहती हूँ। न बोल सकती हूँ, न चल सकती हूँ, लेकिन हर दिन की कहानियाँ मेरे भीतर बस जाती हैं।
कभी मुझ पर दादा जी बैठते थे, अख़बार पढ़ते हुए। उनका वजन, उनकी आदतें — सब अब भी मेरी लकड़ियों में दर्ज हैं। फिर पापा आए, अपने ऑफिस के काम में मुझ पर घंटों बैठते थे। उनकी थकान और सपने, मैं महसूस कर सकती थी।
अब मुझ पर छोटा रोहित बैठता है — किताबें लेकर, कभी होमवर्क करता है, कभी मुझ पर चढ़कर सुपरहीरो बनता है। हर बार गिरता है, फिर हँसता है। उसकी मासूमियत मुझे नया जीवन देती है।
मैंने रोते हुए चेहरे भी देखे हैं, और हँसी से भरते घर भी। मैं सिर्फ एक कुर्सी नहीं, इस घर की यादों की रखवाली हूँ।
एक दिन शायद टूट जाऊँ, पर जब तक हूँ, सबका भार सहूंगी — न शिकायत, न थकान।
सीख: हर वस्तु, चाहे वह बोल न सके, अपने भीतर कई कहानियाँ संजोए होती है। हमें उनके मूल्य को समझना चाहिए।
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